श्रद्धांजलि
कल रात एक दुःखद समाचार प्राप्त हुआ कि 85 वर्ष की आयु में मेजर हरि पाल सिंह अहलूवालिया जी का निधन हो गया। उनका जीवन प्रेरणा से भरा हुआ है। उनके इन्हीं प्रेरणा दायक साहसिक कार्यों की बदौलत उन्हें पद्म भूषण, पद्म श्री और अर्जुन अवार्ड से नवाज़ा गया।
उनके जीवन से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं का यहाँ जिक्र कर रहा हूँ जिससे पता चलता है कि उनकी शख्सियत कितनी विराट थी।
मई के महीने में अक्सर हमें पढने को मिलता है की एवेरेस्ट पर फलां फलां लोग चढ़ गए, इतनी बार चढ़ गए इत्यादि, ऐसा इसलिए होता है क्यूंकि मौसम के हिसाब से मई का महीना विश्व के सबसे ऊँचे शिखर पर चढाई करने का सबसे माकूल समय होता है। अब तो एवेरेस्ट फ़तेह करने वाले भारतीयों की फेहरिस्त काफी लम्बी हो गयी है. लेकिन भारत द्वारा पहली बार चोटी फ़तेह करने की ख़बर का जो आनंद आया होगा, यकीनन वो अलग ही रहा होगा। 1960 में भारतीय दल चोटी से मात्र 700 मीटर नीचे रह गया था जब उन्हें खराब मौसम की वजह से नीचे वापसी करनी पड़ी थी। ये ख़बर सुन कर पूरे देश में हताशा की लहर दौड़ गयी थी। लेकिन फिर वर्ष 1965 में भारत से एक और दल गया जिसने इतिहास रच दिया। इस ऐतिहासिक घटना के 55 वर्ष पूरे हो गए हैं।
आखिरकार, वो, 20 मई 1965 को प्रथम भारतीय दल की चार टोलियों में से पहली टोली (जिसकी अगुआई लेफ्टिनेंट कर्नल अवतार चीमा कर रहे थे) ने एवेरेस्ट फ़तेह करने में कामयाबी पा ली। 1965 में भारत एवेरेस्ट फ़तेह करने वाला विश्व का चौथा देश बन गया। ये हम सभी के लिए गौरव का क्षण बन गया।
मेजर हरी पाल सिंह अहलुवालिया भी इस दल के सदस्य थे।
आज उसी दल में शामिल के एक जांबाज़, बेख़ौफ़ और अत्यंत वीर सदस्य से आपका परिचय करवाता हूँ, जिनका नाम था मेजर हरी पाल सिंह अहलुवालिया।
वर्ष 1996 में मेजर अहलुवालिया द्वारा लिखी गयी एक पुस्तक मेरे हाथ लगी जिसका शीर्षक था “Higher Than Everest” इसमें उनके एवेरेस्ट फ़तेह करने की पूरी कहानी को बहुत ही रोचक तरीके से बताया गया है. तभी से मैं इनका मुरीद हो गया, ये पुस्तक 1973 में आई थी और इसका आमुख तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने लिखा था.
मई 1965 में मेजर अहलुवालिया ने एवरेस्ट फतेह किया और सितंबर 1965 में उन्हें भारत पाकिस्तान युद्ध में शामिल होने का आदेश प्राप्त हो गया। अपनी जांबाजी का प्रदर्शन करते हुए उन्होनें दुश्मन से जमकर लोहा लिया। पर अचानक दुश्मन की एक गोली उनकी रीढ़ की हड्डी पर आ लगी जिसकी वजह से उस दिन से लेकर आज तक उनको व्हील चेयर का सहारा लेना पड़ता है। अपनी ज़िंदादिली और साहस के दम पर उन्होनें न केवल इस चुनौती को स्वीकार किया बल्कि दिल्ली के वसंत कुंज में इंडियन स्पाइन इंजरी हॉस्पिटल की स्थापना की, जहाँ ऐसे मरीजों का इलाज किया जाता है। अपनी इसी ज़िंदादिली और साहसिक जज़्बे की वजह से उनको ‘पद्म भूषण’, ‘पद्म श्री’ और ‘अर्जुन अवार्ड’ से नवाजा जा चुका है। वर्ष 2015 में इनसे पहली मुलाकात हुई और उसके बाद तो कई बार हो चुकी है. इनकी Higher Than Everest का नवीन संस्करण छपा है जिसमे इन्होने अपनी सिल्क रूट की यात्रा को भी शामिल कर लिया है. ये पुस्तक किसी ग्रन्थ से कम नहीं है हर युवा को इस पुस्तक को पढना चाहिए और इससे प्रेरणा लेनी चाहिए।
मेजर अहलूवालिया मुझसे बहुत स्नेह करते थे, जब भी मिलता बहुत आशीर्वाद देते और सदैव कुछ नया करने को प्रेरित करते। उनके चेहरे पर सदा ही ऐसी दैवीय मुस्कान रहती जो उनके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा देती।
अपने जीवन के 57 वर्ष व्हील चेयर पर बीताने के बावजूद कभी उनके चेहरे पर शिकन नही देखी। परिस्थितियों का सामना करना और उन पर विजय प्राप्त करना कोई मेजर अहलूवालिया से सीखे।
ईश्वर इस दिवंगत आत्मा को अपने चरणों में स्थान प्रदान करें। ॐ शांति।
जय हिन्द।